कैलेंडर वर्ष 2024 भारतीय शेयर बाजारों के लिए सटीक तूफानी साबित हुए हैं। वैश्विक अवरोधों के बीच बाजारों को चुनाव नतीजे, ऊंची महंगाई, जलवायु के अति वाले हालात, मूल्यांकन की चिंता और कंपनियों की धीमी होती आय से जूझना पड़ा है। क्या बुरा दौर खत्म हो गया है?
भारतीय शेयर बाजार में और गिरावट की गुंजाइश है। मूल्यांकन ठीक हुए हैं। लेकिन यह पर्याप्त नहीं। सितंबर के उतरार्ध में अपने सर्वोच्च स्तर पर भारत एशिया (जापान को छोड़कर) के मुकाबले 85 से 90 फीसदी पीई प्रीमियम पर ट्रेड कर रहा था। यह घटकर 60 फीसदी से कम रह गया है। लेकिन अभी भी पिछले 10 साल के औसत 38 फीसदी से काफी ऊंचा है। यह गिरावट न सिर्फ भारत के महंगे मूल्यांकन और एशिया के अन्य इलाकों में सुधार की उम्मीद के कारण हो रही है बल्कि घटते आय अनुमान के चलते भी। पिछले चार महीने में कैलेंडर वर्ष 2025 व कैलेंडर वर्ष 26 के लिए भारत में आमसहमति वाली प्रति शेयर आय अनुमान में 5 से 6 फीसदी तक की कमी आई है।
साल 2025 में मंदी के दौर में फिसल सकते हैं?
अगले दो से तीन महीने भारतीय और उभरते बाजारों की (ईएम) इक्विटी के लिए अहम होंगे। घरेलू स्तर पर हमें संभवतः जनवरी के परिणाम सीजन के दौरान आय अनुमान में ज्यादा कटौती और कुछ ज्यादा अस्थिर कॉरपोरेट टिप्पणियों से निपटना होगा। वैश्विक स्तर पर व्यापार संबंधी और भूराजनीति के प्रति संवेदनशील नीतियों के अनुमान के अलावा महंगाई व अमेरिकी फेडरल रिजर्व की दर कटौती को लेकर अनिश्चितताएं उभरते बाजार के उतार-चढ़ाव में और इजाफा कर सकते हैं। भारत में मूल्यांकन में सिकुड़न का एक दौर देखने को मिल सकता है। ये चीजें इक्विटी में गिरावट या बाकी एशिया की दोबारा रेटिंग या दोनों ही स्थितियों के तौर पर नजर आ सकती हैं। हालांकि ऐसी गिरावट को मंदी के बाजार के तौर पर बताना अपरिपक्व होगा।
उभरते बाजारों के मुकाबले भारतीय बाजारों के मूल्यांकन को लेकर आप कितने चिंतित हैं?
यह देखते हुए कि निफ्टी-50 सितंबर के अंत में शिखर से केवल 7.4 फीसदी नीचे आया है और आमसहमति वाला ईपीएस अनुमान 5-6 फीसदी कम है, हमें नहीं लगता कि भारतीय बाजार ने घरेलू और वैश्विक प्रतिकूलताओं पर जरूरत से ज्यादा प्रतिक्रिया व्यक्त की है। आमतौर पर गिरावट के चरण में लार्जकैप की तुलना में स्मॉल और मिडकैप में अधिक गिरावट आती है, लेकिन मौजूदा घटनाक्रम में हमें ये संकेत भी नहीं दिख रहे हैं। भारत में मूल्यांकन की स्थिरता के संकेतों के लिए हम एशिया (जापान को छोड़कर) के मुकाबले भारत के मूल्यांकन प्रीमियम को देखते हैं। जब प्रीमियम घटकर 40- 50 फीसदी (मौजूदा 60 फीसदी से) तक आ जाता है तो विदेशी निवेशकों की ओर से भारतीय इक्विटी में एक स्थायी सुधार हो सकता है।
भारतीय बाजार परंपरागत रूप से अपने उभरते बाजारों के प्रतिस्पर्धियों की तुलना में मूल्यांकन प्रीमियम पर हैं। इस बार जब कमाई उम्मीद के मुताबिक नहीं हुई तो फिर घबराहट में बिकवाली क्यों हुई?
भारत एशिया के अपने समकक्ष बाजारों के मुकाबले प्रीमियम पर व्यापार करने का हकदार है। यह 20 देशों की अर्थव्यवस्था वाले समूह में सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था है। इसमें वृद्धि वाले क्षेत्रों की एक विस्तृत श्रृंखला के साथ एक बड़ा लिक्विड बाजार है और ऐसी कंपनियां हैं जो लगातार इक्विटी की लागत से ज्यादा इक्विटी पर रिटर्न का सृजन करती हैं। हालांकि मौजूदा उदाहरण में भारत का मूल्यांकन प्रीमियम सामान्य सीमा से काफी आगे निकल गया, जिससे खोट की कोई गुंजाइश नहीं रह गई। जब कमाई के अनुमान में गिरावट शुरू हुई और अब तक उपेक्षित बाजार चीन ने परिसंपत्ति बाजारों को सहारा देने के लिए प्रोत्साहन देना शुरू किया तो भारतीय इक्विटी में विदेशी बिकवाली तेजी से बढ़ी।
अगर भारतीय बाज़ारों को यू-टर्न लेना है और निरंतर बढ़त बनानी है तो उनके लिए संकेतक क्या होंगे। विदेशी निवेश किस हद तक इसका महत्त्वपूर्ण हिस्सा होगा?
सरकारी खर्च में सुधार और खपत (विशेष रूप से ग्रामीण इलाकों में) में इजाफे आदि आय अनुमान उन्नयन के अगले दौर की अगुआई कर सकता है, संभवतः 2025-26 की शुरुआत से। बाजार में मजबूत सुधार के लिए यह अगला उत्प्रेरक होना चाहिए। विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) का निवेश एक अहम चालक तो होगा, लेकिन उतना महत्त्वपूर्ण नहीं होगा जितना वे पिछले दशक में हुआ करते थे। स्थिर घरेलू निवेश हाल में एफआईआई की निकासी को बेअसर करने से कहीं ज्यादा रहा है और ऐसा जारी रहना चाहिए, खासकर अगर सख्त मौद्रिक हालात नरम हुए और ब्याज दरों में गिरावट आए तो।
एशियाई और उभरते बाजारों में इक्विटी के लिए आपका निर्धारण क्रम क्या है?
हमारे मॉडल पोर्टफोलियो में हम ताइवान पर महत्त्वपूर्ण ओवरवेट, दक्षिण कोरिया पर एक छोटे ओवरवेट और तटवर्ती चीन और भारत पर तटस्थ रुख की सिफारि श करते हैं। आसियान बाजारों में ज्यादा भार के साथ हमें इंडोनेशिया पसंद है।
क्या वैश्विक वित्तीय बाज़ार भूराजनीतिक और व्यापार-संबंधी संघर्ष में वृद्धि की उम्मीद करते हैं?
भूराजनीति 2025 में वित्तीय बाजारों का सबसे महत्त्वपूर्ण चालक होगी। अमेरिका में चुने गए राष्ट्रपति ट्रम्प की तरफ से चीन व कई अन्य व्यापारिक साझेदारों से आयात पर टैरिफ में प्रस्तावित बढ़ोतरी का आंशिक तौर पर असर उन अर्थव्यवस्थाओं की मुद्राओं के गिरावट के रूप में नजर आया है। लेकिन नई व्यापार नीति की घोषणाएं तीव्र गति से होती रहती हैं और नए प्रशासन के कार्यभार संभालने के बाद भी इनके जारी रहने की संभावना है, जिसका अर्थ है कि बाज़ार में अस्थिरता भी बनी रहेगी।