टाटा ग्रुप के पूर्व चेयरमैन रतन टाटा नहीं रहे। वो पारसी समुदाय से ताल्लुक रखते थे। इस कम्युनिटी में शवों को जलाने या दफनाने का नहीं, बल्कि बिना कफन खुले में छोड़ देने का रिवाज रहा है। जहां गिद्ध जैसे पक्षी नोच-नोचकर खाते हैं। जिस जगह शव को रखा जाता ह
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दो साल पहले भास्कर रिपोर्टर मनीषा भल्ला ‘टावर ऑफ साइलेंस’ पहुंची थीं। उन्होंने पारसियों के अंतिम संस्कार के तौर-तरीकों को डिटेल में कवर किया था। आज फिर से उस स्टोरी को पब्लिश कर रहे हैं। पढ़िए भास्कर रिपोर्टर की आंखों-देखी…
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मैं साउथ मुंबई के चर्चगेट स्टेशन पर हूं। यहां से बाहर निकलकर मरीन ड्राइव पहुंचती हूं। वहां से समंदर के पार कोने में एक घना जंगल दिखता है। कार से वहां पहुंचने में 20 मिनट लगे। मालाबार हिल्स पर 55 एकड़ में फैला ये जंगल सालों पुराना है। यहीं है डूंगरवाड़ी। यानी किसी पारसी की मौत के बाद का आखिरी दुनियावी मुकाम।
पत्थर के पाथवे से होते हुए पहले कार से और फिर पैदल चलकर मैं यहां पहुंची। सन्नाटा पसरा हुआ। हरियाली और बारिश की बूंदों से नहाए पेड़ों के बीच इक्का-दुक्का लोग। छोटे-छोटे घर, इन्हें बंगली या फ्यूनरल पार्लर नाम से पुकारते हैं।
किसी पारसी के अंतिम संस्कार से पहले यहां उसकी डेड बॉडी रखी जाती है। यहीं से संकरी राह से होते हुए तकरीबन 10 किलोमीटर चलने पर मिलता है- दखमा यानी टावर्स ऑफ साइलेंस।
पारसी डेड बॉडी को जलाने, दफनाने या पानी में बहाने के बजाय टावर्स ऑफ साइलेंस में गिद्धों के खाने के लिए छोड़ देते हैं। दो-तीन महीने में गिद्ध बॉडी का मांस खा जाते हैं और बची हुई हड्डियों को गड्ढे में डालकर दबा दिया जाता है।
टावर्स ऑफ साइलेंस की ये तस्वीर 1880 की है। उसकी दीवारों पर गिद्ध बैठे नजर आ रहे हैं। यहां गैर पारसियों को आने की इजाजत नहीं है।
अब आपके मन में सवाल होगा कि पारसी आखिर ऐसा क्यों करते हैं, चलिए समझते हैं
पारसी धर्म में अंतिम क्रिया चार दिनों की होती है। पहले दिन शव को तैयार करके बंगली में लाया जाता हैै। इसके बाद डेड बॉडी को टावर्स ऑफ साइलेंस में गिद्धों के खाने के लिए छोड़ दिया जाता है। चौथे दिन रूह के फैसले का दिन होता है।
महाराष्ट्र के कोलाबा में स्थित जोरास्ट्रियन (पारसी धर्म मानने वाले) स्ट्डीज सेंटर के मैनेजिंग ट्रस्टी खोजेस्टी पी मिस्त्री कहते हैं कि आहूरमाजदा यानी पारसियों का गॉड सब जानता है, लेकिन वो सर्वशक्तिमान नहीं है। इसीलिए मौत आहूरमाजदा नहीं देता। मौत देना तो शैतान का काम है।
आत्मा के शरीर से निकल जाने के बाद उसमें नसो यानी शैतान का वास हो जाता है। इसकी वजह से डेड बॉडी अपवित्र हो जाती है।
पारसी आग को सन ऑफ गॉड मानते हैं। इसकी पूजा करते हैं। पानी और मिट्टी भी उनके लिए पवित्र होता है। इसलिए किसी की मौत के बाद पारसी डेड बॉडी को न जलाते हैं, न ही दफनाते हैं। उनका मानना है कि ऐसा करने से नसो आग, पानी, मिट्टी में प्रवेश कर उसे अपवित्र कर देगा।
डेड बॉडी में शैतान कैसे घुसता है
खोजेस्टी पी मिस्त्री दुनिया में इकलौते व्यक्ति हैं, जो पारसियों को उनके रीति-रिवाज और धार्मिक क्रियाओं के बारे में काउंसिलिंग करते हैं।
मिस्त्री कहते हैं- किसी की मौत होने के ठीक बाद परिवार वाले डेड बॉडी को छू सकते हैं, चूम सकते हैं। उसके बाद नसासलार को मौत की सूचना दी जाती है। नसासालर अपने वाहन से शव को लेने के लिए जाते हैं। ये वे लोग होते हैं, जो बंगली में रहते हैं। मौत के बाद सारी क्रिया-कर्म वे लोग ही करते हैं। माना जाता है कि नसासालार अपनी प्रार्थना से नसो को साध कर रखते हैं।
वे सबसे पहले डेड बॉडी के कपड़ों को काटते हैं। फिर उसे ठंडे पानी से नहलाते हैं। मान्यता है कि इसके बाद उस डेड बॉडी में शैतान प्रवेश कर जाता है। यानी अब इस बॉडी को नसासालर के सिवा कोई और छू नहीं सकता है। मृतक के परिजन और रिश्तेदारों को भी 9 फीट की दूरी पर रहना होता है।
इसके बाद बॉडी पर गौ मूत्र लगाया जाता है। फिर उसे सफेद रंग की सदरा और पायजामा पहनाते हैं। सदरा मलमल के कपड़े का अंदर पहनने वाला वस्त्र होता है, जो प्यूरिटी का प्रतीक है। इसके ऊपर कमरबंधनी नुमा ढीली सी कस्ती (एक प्रकार से जनेऊ) बांधी जाती है, जो बकरी के ऊन से बनी 72 तंदों की होती है। यह जीवन को सही दिशा देती है। इसे डायरेक्शन फाइंडर कहते हैं।
मौत के बाद नसासलार शव को सफेद कपड़े और कैप पहनाते हैं। इस दौरान परिजनों को 9 फीट दूर खड़ा रहना होता है। इलेस्ट्रेशन : गौतम चक्रबर्ती
72 तंद इसलिए होते हैं, क्योंकि पारसी में जीवन दर्शन कैसा होना चाहिए, यह उनके धार्मिक ग्रंथ गाथा में 72 यस्ना (अलग अलग मौकों पर निभाई जाने वाली रीति-रिवाज) में बताया गया है। इसके बाद उसे टोपी पहनाई जाती है। सबसे आखिर में सफेद चादर से लपेट देते हैं। इसके बाद डेड बॉडी को बंगली में ले जाया जाता है।
मान्यता- कुत्ता देखकर पता करता है कि शरीर से शैतान निकल गया है कि नहीं
पारसियों में अंतिम संस्कार के वक्त कुत्ते का खास महत्व है। ऐसी मान्यता है कि ये कुत्ते ही इस बात की तस्दीक करते है कि उस व्यक्ति के प्राण निकल गए हैं या नहीं।
बंगली में ले जाने के बाद डेड बॉडी को तीन संगमरमर के बने स्लैब्स पर रख दिया जाता है। उसके बाद नसासालर हाथ में कीलें लेकर बॉडी के आसपास क्लॉक वाइज तीन दफा घूमते हुए अपने मंत्र पढ़ते हैं।
इसके बाद बॉडी को स्लैब से उठाकर स्ट्रेचर पर रखा जाता है। इस दौरान नसासालर हाथ में कीलें लेकर एंटी क्लॉक वाइज घुमाते हैं। ताकि शैतान कील की सीमा के अंदर ही रहे। इसके बाद कुत्ते को वहां लाया जाता है। जो इस बात की तस्दीक करता हैं कि मृत आदमी कहीं जिंदा तो नहीं है, उसके प्राण निकल गए हैं या नहीं।
अगर कुत्ता भौंकता है, तो इसका मतलब है कि आदमी जिंदा है।
इस दौरान दो पारसी पुजारी यानी अथोरनान प्रेयर करते रहते हैं। दोनों सफेद कपड़े के जरिए खुद को एक दूसरे से बांधे रहते हैं, ताकि शैतान दो लोगों की ताकत को देखकर डरे और बाहर नहीं निकल सके।
मिस्त्री के मुताबिक 50 के दशक में एक दफा ऐसा हुआ था, जब कुत्ता मृत शरीर को देखकर भौंकने लगा था। बाद में पता लगा कि वह आदमी कोमा में था।
दादर ईस्ट में अथोरनान इंस्टीट्यूट है, जो पारसी धार्मिक शिक्षा का केंद्र है। यह पूरी दुनिया में सिर्फ मुंबई में है। यहां के प्रिंसिपल डॉ. रमियर पी करनजिया बताते हैं कि अगर मौत शाम में हुई है, तो बॉडी को रातभर बंगली में रखा जाता है। इस दौरान फर्जीआत (पारसी प्रार्थना) होती रहती है।
डेड बॉडी के पास फूल, चंदन और अग्नि जलाई जाती है। माना जाता है कि चंदन की खुशबू के आगे शैतान नियंत्रित रहता है और अग्नि से दूर भागता है।
पारसी अग्नि को पवित्र मानते हैं और इसकी पूजा भी करते हैं। जब तक मृत व्यक्ति का अंतिम संस्कार नहीं किया जाता, उसके शव के पास अग्नि रखकर ये लोग लगातार प्रार्थना करते रहते हैं।
पारसियों के लिए सूरज की रोशनी का बहुत महत्व है। इसलिए धूप निकलने के बाद ही अगले दिन डेड बॉडी को टावर्स ऑफ साइलेंस यानी दखमा में फ्यूनरल के लिए ले जाया जाता है। दखमा की उंचाई 21 फीट होती है।
यह गोलाकार होता है और इसके चारों ओर तीन खांचे होते हैं। पहला खांचा मर्दों के लिए, बीच वाला खांचा औरतों के लिए और तीसरा खांचा बच्चों के लिए। इसके ठीक बीचों-बीच एक गहरा गड्ढा होता है। गड्ढे के 16 दिशाओं में 301 कीलें गाड़कर उसकी किलेबंदी की जाती है।
इसमें सिर्फ एक गेट होता है जो ऊपर से खुला होता है, ताकि गिद्ध डेड बॉडी का मांस खा सकें और सूरज की किरणें उस पर पड़ सकें।
टावर्स ऑफ साइलेंस में बॉडी लाने के बाद आखिरी बार मृतक के परिजनों को दर्शन करने का मौका मिलता है, लेकिन 9 फीट दूर से। यहां डेड बॉडी के कपड़े उतारकर एक गड्ढे में जला दिए जाते हैं। बॉडी बिना कपड़ों के रखी जाती है। महिला, पुरुष सबकी। इस दौरान 4 दिनों तक मृतक का परिवार नॉन वेज भी नहीं खाता है।
टावर्स ऑफ साइलेंस में अंतिम क्रिया के लिए शव को ले जाते हुए नसासलार। नसासलार ही अंतिम क्रिया को अंजाम देते हैं। इलेस्ट्रेशन : गौतम चक्रबर्ती
पारसी मानते हैं कि शुरुआत के तीन दिनों तक आत्मा शरीर से बाहर उसी जगह रहती है। इसके बाद वो एक छोटे बच्चे की तरह हो जाती है। डर जाती है। चौथे दिन डे ऑफ जजमेंट होता है। यानी रूह के फैसले का दिन। इस दिन जो फर्जीआत होती है उसे हाई प्रेयर कहते हैं। इस दिन मृतक के परिवार को वहां मौजूद रहना जरूरी होता है।
इसी दिन आहूरमाजदा के चार जज फैसला करते हैं कि वह रूह अच्छी है या बुरी। इन जजों को यज्द कहा जाता है। मृतक के अच्छे-बुरे कामों और अच्छे-बुरे बोले गए शब्दों के मुताबिक फैसला होता है।
रूह ने अच्छे काम किए हैं, तो उसे सूरज की किरणों के साथ स्वर्ग यानी हाउस ऑफ सॉन्ग में भेज दिया जाता है। खराब काम किए हैं, तो उस आत्मा को खुद नर्क यानी हाउस ऑफ डिसीट में जाना होता है। इसके बाद डेड बॉडी को वहीं छोड़ दिया जाता है।
अब गिद्धों का काम शुरू होता है। जैसे ही उन्हें यहां डेड बॉडी दिखती है, वे नीचे उतरकर इसे खाने लगते हैं। जहां तक वक्त की बात है, तो यह बॉडी के साइज पर डिपेंड करता है। पहले दस से पंद्रह दिन के भीतर गिद्ध डेड बॉडी का मांस खा जाते थे, लेकिन अब गिद्धों की संख्या काफी कम हो गई है, तो दो से तीन महीने का वक्त लग जाता है।
कुछ इस तरह टावर्स ऑफ साइलेंस में डेड बाडी रखी जाती है। जिसका मांस 2-3 महीने में गिद्ध खा जाते हैं। (प्रतीकात्मक तस्वीर)
गिद्धों के मांस खाने के बाद बची हुई हड्डियों को धूप और बारिश में डीकंपोज होने के लिए छोड़ दिया जाता है। आखिर में बॉडी का जो कुछ हिस्सा बच जाता है, उसे नसासालार टावर ऑफ साइलेंस के बीच बने सूखे कुएं में डाल देते हैं, जिसमें चूना और ब्लैक सॉल्ट होता है। आठ से दस महीने में कुएं में उसका पाउडर बन जाता है।
फिर भी जो बड़ी हड्डियां बच जाती हैं, उन्हें नसासालार टावर ऑफ साइलेंस के पास बने गड्ढे में चूने और नमक के साथ दबा देते हैं। इस तरह पारसी अंतिम संस्कार की क्रिया पूरी करते हैं।
पहले शैतान की पूजा करते थे पारसी, जरथुष्ट्र ने समझाया
मिस्त्री कहते हैं कि पारसी पैगबंर जरथुष्ट्र (पारसी के संस्थापक) के धरती पर आने से पहले ईरानी लोग ‘देवा यसना’ को पूजते थे। यहां देवा मतलब देवता नहीं, शैतान। उनका मानना था कि शैतान की पूजा करने से किसी मुसीबत से फौरन राहत मिल जाती है।
जरथुष्ट्र ने लोगों को समझाया कि हमें देवा यसना की इबादत नहीं करनी है, वह शैतान है। हमें बुद्धि यानी विजडम की इबादत करनी है। उन्होंने आहूरमाजदा (पारसियों के ईश्वर) की इबादत करने के लिए कहा। जिसे लॉर्ड ऑफ विजडम कहते हैं। जरथुष्ट्र ने कोई ग्रंथ नहीं लिखा, बल्कि पांच गाथा गाकर (हमिंग) लोगों को सही और गलत के बारे में बताया।
जरथुष्ट्र ने पहली गाथा को मय्यत के लिए सबसे अहम बताया है। मय्यत के वक्त और मृत शरीर को नहलाते हुए पहली गाथा की अहूनावाइती (एक प्रकार की प्रार्थना) की जाती है।
10% पारसी अब बिजली के क्रिमैटोरियम में करते हैं अंतिम संस्कार
4 सितंबर को सड़क हादसे में जान गंवाने वाले इंडस्ट्रियलिस्ट साइरस मिस्त्री का पारसी परंपरा के बजाय वर्ली के इलेक्ट्रिक क्रिमैटोरियम में किया गया था। पारसी धार्मिक शिक्षा केंद्र के प्रिंसिपल डॉ. रमियर पी करनजिया का कहना है कि साइरस मिस्त्री के निधन से करीब दो महीने पहले उनके पिता की मृत्यु हुई थी। उनका अंतिम संस्कार टावर्स ऑफ साइलेंस में हुआ था।
दरअसल, साइरस की पत्नी मुस्लिम हैं। उनके बेटे इस बात पर राजी नहीं थे कि उनकी मां अपने मृत पति को करीब से देख भी नहीं पाएंगी। करनजिया के मुताबिक नई पीढ़ी के कई पारसी नहीं चाहती है कि उनके प्रियजन का शरीर कई दिन तक खुले में रहे। अब करीब 10% पारसी परिवार इलेक्ट्रिक क्रिमैटोरियम में अंतिम संस्कार करते हैं।
कोविड के दौरान टावर्स ऑफ साइलेंस में सिर्फ एक टावर कोविड से मरने वालों के लिए खुला था। इलेक्ट्रिक क्रिमैटोरियम को अपनाए जाने की यह भी एक बड़ी वजह है।
7वीं सदी में तीन कश्तियों पर सवार होकर भारत पहुंचे थे पारसी
7वीं सदी के ईरान को पर्शिया के नाम से जाना जाता था। तब वहां सासानी साम्राज्य का शासन था और जोरोस्ट्रायनिज्म वहां का राज धर्म था। भारत में पारसियों के आने की कहानी हमें किस्सा-ए-संजन नाम के जोरोस्ट्रियन गाथा से पता चलती है। इसे दस्तूर बहामन ने 1600 ईस्वी में लिखा था।
दरअसल ईरान के अंतिम बादशाह याजदेगार्द को अरबों ने 641 ईस्वी में नेहावंद की जंग में हरा दिया। इसके बाद ही पारसी अरबों के अत्याचार से बचने के लिए वहां से भागने लगे।
कुछ लोग खुरासान की पहाड़ियों में जाकर बस गए। 8 वीं सदी आते-आते खुरासान की पहाड़ियों पर बसे पारसी राजाओं की हार होने लगी। इसके बाद ज्यादातर लोग हरमूज बंदरगाह पहुंचे और वहां करीब 30 साल रहे।
यहां भी उनके खिलाफ जब अत्याचार नहीं रुका, तो वहां से तीन नावों में सवार होकर गुजरात के काठियावाड़ में दीव द्वीप पर पहुंच गए। यहां से वो वलसाड पहुंचे। तब गुजरात के इस इलाके के राजा जाधव राणा ने कुछ शर्तों के साथ पारसियों को यहां रहने की इजाजत दी। जहां पारसियों ने संजान नाम का छोटा सा नगर बसाया।
दुनिया के 40% पारसी मुंबई में रहते हैं, कुल आबादी सवा लाख से कम
मुंबई के जोरास्ट्रियन स्ट्डीज सेंटर के मुताबिक दुनिया में पारसी की कुल संख्या 1 लाख 15 हजार है। इनमें से 40% पारसी सिर्फ मुंबई में रहते हैं। साउथ मुंबई के दादर ईस्ट, कोलाबा, भाईकल्ला, परेल और मालाबार हिल्स पारसियों के ठिकाने हैं। यहां पारसियों के बड़े-बड़े बंगले और उनके घरों का विशेष ब्रिटिश आर्किटेक्चर बता देता है कि यहां पारसी परिवार रहता है।
एक तिहाई पारसी शादी ही नहीं करते, घट रही है आबादी
पारसियों में 30% पुरुष और 28% औरतें शादी नहीं करती हैं, क्योंकि छोटा सा समुदाय होने की वजह से उन्हें परफेक्ट मैच नहीं मिलते हैं।
पारसियों की घट रही जनसंख्या के चलते दिल्ली की पारसियों की संस्था पारजोर भारत सरकार के साथ मिलकर एक फर्टिल्टी प्रोग्राम चलाती है। जिसमें वह उन पारसी जोड़ों का इलाज करवाते हैं, जिनके बच्चा नहीं हो सकता है। यह इलाज मुफ्त होता है। इसकी वजह से बीते 6 साल में 261 पारसी बच्चे पैदा हुए हैं।
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