इंडियन स्टॉक मार्केट्स 3 अक्टूबर को क्रैश कर गए। 4 अक्टूबर को मार्केट कमजोर खुले। दोपहर तक बिकवाली का दबाव बढ़ गया। इससे सेंसेक्स और निफ्टी 0.40 फीसदी तक लुढ़क गया। इंडियन मार्केट्स तीन बड़ी वजहों से लड़खड़ाता दिख रहा है। विदेशी निवेशक चीन में पैसे लगाने के लिए इंडियन मार्केट्स में बिकवाली कर रहे हैं। दूसरा, सेबी के एफएंडओ के नए नियमों का बाजार पर असर दिख रहा है। आखिर में मिडिलईस्ट क्राइसिस है। आखिर ये तीनों इंडियन मार्केट्स के लिए कितने बड़े रिस्क हैं? मनीकंट्रोल ने इस सवाल का जवाब जानने के लिए दिग्गज इनवेस्टर और फंड मैनेजर समीर अरोड़ा से बातचीत की।
विदेशी निवेशकों के इंडियन मार्केट से पैसे निकालने के बारे में उन्होंने कहा कि यह सोचना सही नहीं है कि विदेशी इनवेस्टर्स चीन के मार्केट में निवेश करने के लिए इंडियन मार्केट्स से अपने पैसे निकाल लेंगे। कुछ फंड्स ऐसा कर रहे हैं। खासकर ऐसे फंड चीन में निवेश के लिए इंडिया में बिकवाली कर सकते हैं, जिनके पास पैसे की कमी है। जब चीन के मार्केट्स का प्रदर्शन अच्छा रहता है तो पैसा एशिया-जापान फंड्स और एशिया-पैसेफिक फंड्स जैसे इमर्जिंग मार्केट्स फंडों में जाता है, जो इंडिया सहित पूरे क्षेत्र के लिए पॉजिटिव है।
अरोड़ा ने कहा कि चीन के स्टॉक मार्केट्स के खराब प्रदर्शन का असर इन फंडों के रिटर्न पर भी पड़ रहा था। अगर चीन का प्रदर्शन खराब रहता है तो आपका प्रदर्शन अपेक्षाकृत बेहतर हो सकता है। लेकिन, आखिकार आप तब बेहतर करते हैं, जब चीन सहित पूरे क्षेत्र का प्रदर्शन बेहतर रहता है। यह सही है कि चीन का मार्केट्स एक हफ्ता पहले के मुकाबले अचानक 25 फीसदी महंगा हो गया है। मान लीजिए अगर किसी इंडेक्स में चीन की 20 फीसदी हिस्सेदारी थी तो वह अब बढ़कर 25 फीसदी हो जाएगी। इसका मतलब है कि इंडेक्स की वैल्यूएशन करीब 5-7 फीसदी बढ़ जाएगी। इसका यह भी मतलब है कि अब इंडियन मार्केट एक हफ्ता पहले के मुकाबले 5 फीसदी सस्ता है। मार्केट्स इसी तरीके से चलता है।
उन्होंने कहा कि इंडियन म्यूचुअल फंडों के पास अभी काफी कैश है। अगर अमेरिका और चीन सहित दूसरे मार्केट्स का प्रदर्शन अच्छा रहता है तो इंडियन फंड मैनेजर्स भी ज्यादा आत्मविश्वास के साथ अपने कैश का इस्तेमाल कर सकेंगे। जहां तक मिडिलईस्ट क्राइसिस की बात है तो इजराइल एक साथ कई ताकतों से लड़ रहा है। इनमें हिजबुल्लाह, हमास हूती और अब ईरान शामिल हैं। अमेरिका और एशियाई स्टॉक मार्केट्स को देख ऐसा लगता है कि यह क्राइसिस अब तक नियंत्रण में है। इजराइल यह सोच सकता है कि अगर डोनाल्ट ट्रंप राष्ट्रपति बनते हैं तो वह उसका सपोर्ट करेंगे। अगर कमला हैरिस राष्ट्रपति बनती हैं तो उनका जोर शांति बहाली की कोशिशों पर होगा। इसलिए उसका रुख अभी आक्रामक है।
ऑयल की कीमतों के बारे में उन्होंने कहा कि अगर इस लड़ाई के बढ़ने की आशंका होती तो मार्केट्स में इतनी शांति नहीं दिखती। चर्चा है कि आगे ऑयल की कीमत गिर सकती है। सऊदी अरब ने तो इसके गिरकर 50 डॉलर प्रति बैरल तक आ जाने की बात कही है। अगर ट्रंप जितते हैं (जिसकी ज्यादा संभावना है) तो ऑयल की कीमतों में गिरावट आएगी। इसकी वजह यह है कि मिडिलईस्ट को लेकर उनका रुख ज्यादा आक्रामक रहा है। सच यह है कि ऑयल की कीमतें ज्यादा नहीं बढ़ रही हैं और बाजार में ज्यादा गिरावट नहीं है। इससे यह संकेत मिलता है कि दुनिया यह समझ रही है कि चीजें कंट्रोल में हैं।