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अमेरिका में आने वाली 2008 से भी बड़ी मंदी? जानें सेंसेक्स और निफ्टी में क्यों मची है खलबली

Stock Market Crash: दुनिया भर के शेयर बाजारों के लिए आज तबाही का दिन रहा। भारत से लेकर जापान और यूरोप तक, दुनिया का हर शेयर मार्केट आज भारी गिरावट के साथ बंद हुआ। जापान में तो 1987 के बाद की यानी पिछले करीब 37 सालों की सबसे बड़ी गिरावट आई। भारत में तो लोगों के शेयर बाजार में करीब 15.5 लाख करोड़ रुपये डूब गए। इस पूरी गिरावट के जड़ में जो सबसे बड़ा रीजन रहा, वो था अमेरिका। तमाम आर्थिक आंकड़े अमेरिका में मंदी आने की आशंका जता रहे हैं। इस एक बात पूरी दुनिया के निवेशकों को परेशान कर दिया है। आइए जानते हैं कि क्या अमेरिका में 2008 की जैसी मंदी आने वाली है? आखिर क्यों ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है और अगर यह मंदी आई तो भारत सहित दुनिया भर के शेयर बाजारों पर इसका क्या असर पड़ेगा?

अमेरिका में पिछले हफ्ते बेरोजगारी से जुड़ा एक आंकड़ा आया। इस आंकड़े के चलते वहां पर मंदी आने की आशंका जताई जाने लगी है। इस आंकड़े के मुताबिक, अमेरिकी में पिछले महीने 1.14 लाख नौकरियां आई। यह बाजार के अनुमानों से करीब 35 फीसदी कम था। नौकरी कम आने के चलते अमेरिका में बेरोजगारी दर अब 4.3 फीसदी पर पहुंच गई। यह अक्टूबर 2021 के बाद का इसका सबसे ऊंचा स्तर है। इस आंकड़े से यह टेंशन बढ़ गई है कि अमेरिकी की सरकार और वहां के केंद्रीय बैंक, यूएस फेडरल रिजर्व की ओर से मंदी को रोकने के लिए की जा रही कोशिशें काफी नहीं है और अमेरिकी इकोनॉमी मंदी की चपेट में आ सकता है।

इसके अलावा एक और नियम है, जो अमेरिका में मंदी के आने की भविष्यवाणी कर रहा है। इसका नाम है Sahm Rule (साहम रूल)। यह नियम कहता है कि अगर बेरोजगारी दर का 3 महीने का औसत पिछले 12 महीने के न्यूनतम से 0.5% ज्यादा हो तो मंदी आ सकती है। फिलहाल जुलाई में साहम रूल का यह आंकड़ा 0.53 फीसदी पर पहुंच गया। इससे पहले जून में यह 0.43 फीसदी था। साहम रूल की हर जगह चर्चा इसलिए भी है क्योंकि यह नियम 1970 से अबतक सही साबित हुआ है।

हालांकि साहम रुल को बनाने वाली इकोनॉमिस्ट, क्लाउडिया साहम (Claudia Sahm) का वास्तव में अभी मंदी शुरू नहीं हो रही है। उन्होंने कहा कि मुझे अभी ऐसा नहीं लग रहा है कि हम इस समय मंदी में है। फिलहाल किसी को इससे घबराना नहीं चाहिए। हालांकि साहम ने यह भी कहा कि भविष्य में मंदी नहीं आ सकती, हमें इसकी संभावना को खारिज नहीं करना चाहिए।

अब सवाल आता है कि आखिरी मंदी की सिचुएशन बनी कैसे? इसकी शुरूआत कोरोनाकाल में हुई, जब दुनिया अचानक ठप हो गई। तब इकोनॉमी को सहारा देने के लिए दुनिया भर के केंद्रीय बैंकों ने बाजार में खूब पैसे डाले। इन पैसों ने कुछ ही समय में महंगाई की समस्या खड़ी कर दी। इसके बाद शुरू हुआ महंगाई को रोकने का दौर।

यूएस फेडरल रिजर्व और आरबीआई सहित दुनिया भर के केंद्रीय बैंकों ने महंगाई को रोकने के लिए ब्याज दरें बढ़ानी शुरू कर दी। इससे लोगों के हाथ में पैसे कम होने लगे। पिछले 2 साल में ब्याज दरें काफी बढ़ी हैं। इससे महंगाई काफी हद तक काबू में आई है, लेकिन इसके साथ ही मंदी की समस्या खड़ी हो गई। अब सबकी नजरें इस बात पर टिकी हैं कि यूएस फेडरल रिजर्व कब ब्याज दरों में कटौती करेगा, जिससे बाजार में अतिरिक्त पैसा आएगा। भारत में तो आरबीआई पहले इस साल ब्याज दरों की कटौती की संभावना से इनकार कर चुका है। हालांकि अगर अमेरिका की इकोनॉमी मंदी में जाती है, तो केंद्रीय बैंकों को जल्द अपना रुख बदलना पड़ सकता है।

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