Gold Buying Tips: अंतरराष्ट्रीय बाजार में गोल्ड का रेट डॉलर में तय होता है। लेकिन, इसे स्थानीय करेंसी में भी खरीदने का विकल्प रहता है। जैसे कि भारत में आप रुपये से सोना खरीदते हैं। ऐसे में एक सवाल उठता है कि गोल्ड में डॉलर में खरीदना सही रहता है या फिर रुपये में। इस सवाल का जवाब दिया है कैपिटलमाइंड फाइनेंशियल सर्विसेज की लेटेस्ट रिपोर्ट ने।
इस रिपोर्ट के मुताबिक, सोने ने भारतीय रुपये (INR) में खरीद पर लगातार बेहतर रिटर्न दिया है। इसका अमेरिकी डॉलर (USD) में मिले रिटर्न की तुलना में प्रदर्शन ज्यादा मजबूत रहा है। सबसे दिलचस्प बात है कि इतने दशकों में सोने ने रुपये के लिहाज से कभी भी 10 साल की अवधि में नेगेटिव रिटर्न नहीं दिया। वहीं, डॉलर में दो बार ऐसे पूरे दशक बीते हैं, जब निवेशक नुकसान में रहे।
रुपये में निवेश पर बेहतर रिटर्न मिलने की वजह क्या है?
कैपिटलमाइंड की रिपोर्ट का मानना है कि भारतीय निवेशकों के लिए सोना एक मजबूत वैल्यू प्रिजर्वर (मूल्य को बचाए रखने वाला) साबित हुआ है। इसकी वजह है कि समय के साथ रुपया डॉलर के मुकाबले कमजोर होता गया है। मिसाल के लिए, 1973 में 1 डॉलर की कीमत सिर्फ ₹8 थी, जो अब ₹85 के आसपास है। इसका मतलब है कि जब डॉलर के मुकाबले रुपया कमजोर होता है, तो भारत में सोना और महंगा हो जाता है, भले ही इंटरनेशनल मार्केट में प्राइस ना बढ़े।
कैपिटलमाइंड के रिसर्च हेड अनूप विजयकुमार का कहना है, ‘सोने का इतिहास इसके दोहरे स्वभाव को बताता है। एक ओर यह मूल्य का स्थायी भंडार है, तो दूसरी ओर यह एक अस्थिर निवेश भी है जो लंबे समय तक डाउनट्रेंड में रह सकता है। लेकिन रुपये में यह तुलनात्मक रूप से सुरक्षित एसेट रहा है।’
2025 में सोने की रैली के संकेत
रिपोर्ट का अनुमान है कि 2025 में सोने की कीमतों में तेजी बनी रह सकती है। इसके पीछे प्रमुख कारण माने गए हैं:
- वैश्विक भू-राजनीतिक तनाव
- अमेरिका की धीमी होती अर्थव्यवस्था
- बढ़ता वित्तीय घाटा (Fiscal Deficit)
इसके साथ ही, अमेरिका और चीन के बीच भारी टैरिफ वॉर के चलते भी निवेशक गोल्ड जैसे सुरक्षित निवेश की ओर भाग रहे हैं। साथ ही, चीनी युआन 19 महीनों के निचले स्तर पर पहुंच चुका है। इससे गोल्ड की मांग और बढ़ी है।
स्मार्ट पोर्टफोलियो में गोल्ड क्यों जरूरी है?
कैपिटलमाइंड की रिपोर्ट के मुताबिक, अगर पोर्टफोलियो में 5–10% गोल्ड जोड़ा जाए, तो वह सिर्फ इक्विटी वाले पोर्टफोलियो की तुलना में बेहतर रिस्क-एडजस्टेड रिटर्न देता है।
गोल्ड और निफ्टी 50 का 50:50 पोर्टफोलियो पिछले दो दशक में गोल्ड या इक्विटी दोनों से अलग-अलग बेहतर प्रदर्शन कर चुका है। हालांकि, इसे हर साल रीबैलेंस करना जरूरी है। इसका मतलब है कि ज्यादा ग्रोथ हुई है वहां से कुछ पैसा निकालकर दूसरी ओर डाले ताकि अनुपात फिर से 50:50 हो जाए।
गोल्ज इन्वेस्टमेंट में इतिहास से मिले सबक
1970 के दशक में सोने ने 1359% की तूफानी रैली दी थी। इससे 1980 के दशक में भी निवेशकों को उम्मीद थी कि सोना फिर उसी तरह चमकेगा। लेकिन, उसके बाद दो दशक तक उन्हें नुकसान झेलना पड़ा। इसके उलट जिन्होंने 2000 के दशक की शुरुआत में गोल्ड में निवेश किया, उन्हें 293% का फायदा हुआ।
इससे जाहिर होता है कि भावनाओं में बहकर निवेश करने से बचना चाहिए। आपको समय-समय पर पोर्टफोलियो को रीबैलेंस करते रहना चाहिए, ताकि जोखिम की आशंका कम हो जाए।
डॉलर बनाम रुपये में रिटर्न
1990 से 2002 के बीच गोल्ड ने डॉलर में कई बार निगेटिव रिटर्न दिया। लेकिन, रुपये में रिटर्न पॉजिटिव ही रहा। पिछले 35 साल में जब भी आप किसी भी लगातार 5 साल के पीरियड को देखें (जैसे 1985–1990, फिर 1986–1991, फिर 1987–1992…), तो अधिकतर बार सोने (Gold) में भारतीय रुपये में जो रिटर्न मिला, वो डॉलर में मिले रिटर्न से ज्यादा रहा।
इस ट्रेंड की शुरुआत 1991 के ऐतिहासिक आर्थिक सुधारों के बाद हुई, जब भारत में मार्केट-बेस्ड एक्सचेंज रेट अपनाया गया। इसके बाद से ही रुपया वैश्विक झटकों के प्रति ज्यादा संवेदनशील हो गया, और सोने की अहमियत भारतीय निवेशकों के लिए और बढ़ गई।
