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क्या बाजार फिर हो पाएगा तेजी पर सवार?

 

पिछले साल सितंबर के अंत और दिसंबर की शुरुआत के दरम्यान तमाम बाजार सूचकांक अपने शिखर पर पहुंच गए थे। लेकिन वहां से वे ऐसे फिसले कि ठहरते नहीं दिख रहे। निफ्टी 50 सूचकांक 13 प्रतिशत गिर चुका है, निफ्टी 500 तथा निफ्टी मिडकैप 16 प्रतिशत लुढ़क चुके हैं और निफ्टी स्मॉलकैप एवं माइक्रोकैप तो करीब 20 प्रतिशत ढह गए हैं। आखिरी दोनों सूचकांकों में गिरावट ने निवेशकों को परेशान कर दिया है।

पिछले तीन साल में भारतीय बाजार बहुत बदल चुका है। अब निफ्टी 50 या निफ्टी 500 उसका पैमाना नहीं रह गया, जो हमें अभी नजर भी आया है। 2021 से स्मॉलकैप और मिडकैप ने तेज छलांग मारी है और खुदरा निवेशकों तथा म्युचुअल फंडों के निवेश से बाजार में इनका रुतबा भी बढ़ गया है। इन दिनों ज्यादातर आरंभिक सार्वजनिक निर्गम (आईपीओ) माइक्रोकैप कंपनियों के आ रहे हैं। स्मॉलकैप और मिडकैप शेयर ऐसे चढ़े हैं कि सबसे छोटी मिडकैप कंपनी का मूल्यांकन भी 28,000 करोड़ रुपये हो गया है। सबसे बड़ी मिडकैप कंपनी का मूल्यांकन 1 लाख करोड़ रुपये के करीब है। स्मॉलकैप में बहुत सारे नाम हैं मगर इनमें से कई का बाजार मूल्यांकन 10,000 करोड़ रुपये या ज्यादा है। इस समय ये सभी बाजार की रीढ़ हैं मगर इस श्रेणी का भविष्य शानदार नहीं दिख रहा।

शीर्ष सूचकांक यह नहीं बता रहे कि इस श्रेणी के महंगे शेयरों की किस कदर पिटाई हुई है। हकीकत में वे शेयर 30-40 प्रतिशत तक गिर गए हैं मानो गिरना ही उनका मुकद्दर है फिर उनके तिमाही नतीजे चाहे अच्छे रहे हों या खराब। बाजार में अभी बिकवाली ही चल रही है – नतीजे खराब हैं तो शेयर बेच दो। नतीजे अच्छे हैं तो भी शेयर बेच दो क्योंकि बहुत महंगे हो गए हैं। दर्जनों सेक्टर और सब-सेक्टर पर इस बुखार की मार पड़ी है। अब आगे क्या? अगर यह ‘गिरावट’ थी तो क्या अब बीत चुकी है और यहां से तेजड़िये हावी होंगे? मुझे नहीं पता कि यह गिरावट थी या नहीं और अब थम चुकी है या नहीं। मगर एक बात पक्की है, पिछले कुछ साल से हमने बाजार में जो तेजी देखी थी वह जल्दी नहीं लौटने वाली। तेजड़ियों का बाजार अब चला गया।

बाजार में तेजी मध्यम अवधि की कई वजहों से होती है, जो स्थानीय भी होती हैं और अंतरराष्ट्रीय भी। वर्ष 2021 से 2024 तक बाजार में तेजी रहने के कई कारण थे। कोविड के कारण 2021 में आई सुस्ती से देश-दुनिया का तेजी से उबरना और रेल, रक्षा, परिवहन, नवीकरणीय ऊर्जा, निर्माण, जल, स्वच्छता समेत विभिन्न क्षेत्रों में सरकार का भारी पूंजीगत व्यय इनमें प्रमुख थे। इनसे शेयर बाजार में तेजी आई और लाखों नए निवेशकों तथा सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसरों के आने से शेयरों के भाव चढ़ने लगे। इनमें स्मॉलकैप के भाव खास तौर पर उठे और सिलसिला चलता रहा।

कोविड के बाद आई तेजी का सिलसिला अब काफी हद तक थम चुका है और आर्थिक वृद्धि सुस्त हो रही है। इसीलिए सरकार का राजस्व घट रहा है, जिससे पूंजीगत व्यय की गुंजाइश भी कम हो रही है। फिर भी बजट में 11 लाख करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है मगर परियोजनाओं को मंजूरी धीमी गति से मिल रही है। वित्त वर्ष 2024-25 के पहले पांच महीनों में परियोजनाओं की मंजूरी सुस्त होने की वजह आम चुनाव एवं आदर्श आचार संहिता बताई गई थीं मगर अब यह बहाना काम नहीं कर रहा। लब्बोलुआब यह है कि बाजार में तेजी थम चुकी है और अब सही भाव पाने के लिए गिरावट का सिलसिला शुरू हो गया है।

रही-सही कसर अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने पूरी कर दी है। व्हाइट हाउस में उनके पहुंचते ही उलझन, चुनौतियों और सनकमिजाजी पसर गई है, जिसे समझ पाना बहुत मुश्किल है और यह अंदाजा लगाना तो और भी मुश्किल है कि उसका असर क्या होगा। ट्रंप प्रशासन के अब तक के सारे फैसले भारत के लिए खराब ही लग रहे हैं। हाल ही में उन्होंने भारत से टेस्ला कारों के आयात पर शुल्क घटाने की मांग की और भारत ने मांग मान भी ली। भारत चाहता है कि इस सौदे के तहत टेस्ला देश में ही कहीं कारखाना लगाए मगर ट्रंप को यह बेजा मांग लग रही है। अच्छी बात यह है कि शुल्क पूरी तरह खत्म करने पर भी कई अमेरिकी उत्पाद यहां के उत्पादों से होड़ नहीं कर पाएंगे और ज्यादा बिक भी नहीं पाएंगे। मगर भारत की व्यापार एवं उद्योग नीतियों को इस बीच ट्रंप की सख्ती से जूझना होगा। भारत के लिए जोखिम खास तौर पर ज्यादा है क्योंकि व्यापार के मामले में हमारे पास ज्यादा विकल्प नहीं हैं। कुल मिलाकर भारतीय अर्थव्यवस्था और बाजार कई चुनौतियों से जूझ रहे हैं और उनसे निपटने की क्षमता नीति निर्माताओं के पास नहीं है। इसकी आंच कंपनियों को ही झेलनी पड़ेगी और जिनका मूल्यांकन ज्यादा है उनके शेयर औंधे मुंह गिर पड़ेंगे।

लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि बाजार बिल्कुल नहीं चढ़ेगा। शेयर लगातार गिरते नहीं रहते। लेकिन ऐसी तेजी बनी रहेगी, इसकी कोई वजह नजर नहीं आ रही। पहले की तरह ही भारत की आर्थिक वृद्धि दर 5-6 प्रतिशत के बीच रहेगी और इसकी वजहें मैं अपने पिछले लेखों में कई बार बता चुका हूं। आर्थिक नीतियां कमोबेश पहले जैसी ही हैं और आर्थिक माहौल कंपनियों के माकूल नहीं है। खपत आम लोगों में (आय में कम बढ़ोतरी और ऊंची महंगाई के कारण) घटी है मगर अमीरों में ज्यादा है। ऐसी स्थिति में नवाचार नहीं होते और उत्पादकता के बल पर आर्थिक वृद्धि भी नहीं होती, जबकि उत्पादकता आधारित वृद्धि से ही लंबे अरसे तक धन सृजन होता रह सकता है। पिछले दो वर्षों में ऊंचा पूंजीगत व्यय अपवाद ही था और अगर यह आगे भी जारी रहा तो इकलौती अच्छी खबर यही होगी।

ऐसी प्रतिकूल स्थिति में भी भारत पर ट्रंप के चार वर्षों के कार्यकाल के दौरान हथियार और तेल खरीदने, शुल्क घटाने और बाजार ज्यादा खोलने का जबरदस्त दबाव रहेगा। भारत के पास ट्रंप के अधीन अमेरिका की इन घातक, एकतरफा और स्वार्थ भरी नीतियों का कोई जवाब नहीं है। यह भी स्पष्ट नहीं है कि ट्रंप अमेरिका को फिर ‘महान’ बना पाएंगे या नहीं। अगर बराबरी के शुल्क, आव्रजन में सख्ती और ‘सरकारी फिजूलखर्ची तथा संसाधनों की बरबादी’ पर ईलॉन मस्क के अंकुश ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाया तो 2025 की दूसरी छमाही में वहां आर्थिक वृद्धि सुस्त हो सकती है। इसका नुकसान भारत को भी होगा क्योंकि अमेरिका उसका सबसे बड़ा निर्यात बाजार है। इतनी खराब खबरें एक साथ आईं तो भारत के पास उनसे जूझने की क्षमता नहीं है।

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