मैं आपको पहलले से ट्रेडर्स के लिए बढ़ती मुश्किलों से सावधान करता आ रहा हूं। आरबीआई ने रेपो रेट में 25 बेसिस प्वाइंट्स की कमी की। लेकिन, बाजार ने इस पर निगेटिव प्रतिक्रिया जताई और गिरावट के साथ बंद हुआ। इस आर्टिकल में मैंने पहले इसका अनुमान जताया था। इंटरेस्ट रेट में कमी का फायदा बॉरोअर से पहले डिपॉजिटर्स को मिलेगा। प्राइम लेंडिंग रेट (पीएलआर) सिर्फ टॉप क्रेडिट-रेटेड बॉरोअर्स के लिए होता है, दूसरे बॉरोअर्स को अपने लोन पर ज्यादा इंटरेस्ट चुकाना पड़ता है।
मैंने अपने रीडर्स को कैलेंडर ईयर 2025 के चैलेंजेज के बारे में बता दिया था। यह रिटेल ट्रेडर के लिए मुश्किल वक्त है और उसे खुद को बचाए रखने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा। इसी वजह से मैंने ‘दाल-चावल’स्टाइल वाली ट्रेडिंग की सलाह दी थी। यह याद रखें कि डेरिवेटिव्स (फ्यूचर्स एंड ऑप्शंस) ट्रेडर्स को काफी मुश्किल का सामना करना पड़ रहा है, क्योंकि उन्हें अपने इनिशियल मार्जिन और बड़े लॉट साइज का ध्यान रखना है। इसका मतलब है कि कैपिटल ऐलोकेशन बढ़ा है।
हम अनुभव के आधार पर यह जानते हैं कि ट्रेडर्स अक्सर अपने पोजीशन को बनाए रखते हैं जब ट्रेड उनके खिलाफ जा रहा होता है। यह चॉइस से ज्यादा मजबूरी है। एक औसत रिटेल ट्रेडर स्मॉल प्रॉफिट के लिए अपने ट्रेड को सेटल कर सकता है। लेकिन वह लॉस वाले ट्रेड को बड़े लॉस के साथ बनाए रख सकता है। इससे उसका कैपिटल ब्लॉक हो जाता है, जिससे उसे निराशा होती है। लॉट साइज बढ़ जाने से इसका मतलब है कि ऐसे ट्रेड में कैपिटल फंस जाता है, जिससे कोई रिटर्न नहीं मिलने वाला।
इस प्रॉब्लम के सॉल्यूशन के लिए एवरेज रिटेल ट्रेडर भी उस तरीके का इस्तेमाल कर रहे हैं, जिसे प्रोफेशनल ट्रेडर्स ‘डाउनट्रेडिंग’ कहते हैं। मार्केटिंग और सेल्स में ट्रेनी सेल्समैन को एक संभावित खरीदार को कुछ बेचने की तरकीब बताई जाती है। अगर ग्राहक किसी टॉप ब्रांड को इसलिए नहीं खरीदता कि वह बहुत महंगा है तो उसे सेल्समैन सस्ता ब्रांड दिखाता है। चूकि, कस्टमर टॉप ब्रांड की जगह सस्ता ब्रांड खरीद रहा होता है, जिससे इसे डाउनट्रेडिंग कहा जाता है।
पिछले कुछ महीनों से मैं देख रहा हूं कि इंडेक्स और स्टॉक फ्यूचर्स की हिस्सेदारी फीसदी में तेजी से घट रही है, जबकि इंडेक्स और स्टॉक ऑप्शंस की बढ़ रही है। यह क्या हो रहा है? यह डाउनट्रेडिंग है। ट्रेडर्स शुरुआती मार्जिन चुकाने में सक्षम नहीं हैं और वे कॉल ऑप्शंस खरीद रहे हैं। इसमें लॉन्ग के लिए छोटी और फिक्स्ड कॉस्ट चुकानी पड़ती है। पहली नजर में ऐसा करना सही लगता है। लेकिन, क्या यह सही है? मुझे ऐसा नहीं लगता।
रिटेल ट्रेडर खुद को बड़ी मुश्किल में डाल रहा है। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं? इसकी वजह यह है कि ऑप्शंस को ‘वेस्टिंग एसेट’ कहा जाता है। एक ऑप्शन बायर जो प्रीमियम चुकाता है वह समय बीतने के साथ कम होने लगता है, भले ही सिक्योरिटी का प्राइस स्थिर होता है। इसकी वजह यह है कि नजदीक आती एक्सपायरी का मतलब है कि प्रॉफिटेबल पोजीशन में पहुंचने के लिए दिन कम बचे हैं। इस तरह ऑप्शन ट्रेडर्स को दो तरह की दिक्कत आती है-प्राइस और टाइम!